भोजन सभी
सजीवों की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। हमारे भोजन के मुख्य अवयव
कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन एवं वसा हैं। अल्प मात्रा में विटामिन एवं खनिज
लवणों की भी आवश्यकता होती है। भोजन से ई
र्जा एवं कई कच्चे कायिक पदार्थ
प्राप्त होते हैं जो वृद्धि एवं ई
तकों के मरम्मत के काम आते हैं। जो जल हम
ग्रहण करते हैं, वह उपापचयी प्रक्रियाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है
एवं शरीर के निर्जलीकरण को भी रोकता है। हमारा शरीर भोजन में उपलब्ध
जैव-रसायनों को उनके मूल रूप में उपयोग नहीं कर सकता। अत: पाचन तंत्र में
छोटे अणुओं में विभाजित कर साधारण पदार्थों में परिवर्तित किया जाता है।
जटिल पोषक पदार्थों को अवशोषण योग्य सरल रूप में परिवर्तित करने की इसी
क्रिया को पाचन कहते हैं और हमारा पाचन तंत्र इसे याँत्रिक एवं रासायनिक
विधियों द्वारा संपन्न करता है। मनुष्य का पाचन तंत्र चित्र में दर्शाया
गया है।
1 पाचन तंत्र
मनुष्य का पाचन तंत्र आहार नाल एवं सहायक ग्रंथियों से मिलकर बना होता है।
1-1 आहार नाल
आहार नाल
अग्र भाग में मुख से प्रारंभ होकर पश्च भाग में स्थित गुदा द्वारा बाहर की
ओर खुलती है। मुख, मुखगुहा में खुलता है। मुखगुहा में कई दांत और एक पेशीय
जिह्वा होती है। प्रत्येक दांत जबड़े में बने एक सांचे में स्थित होता है।
;चित्र द्वारा-विजय-मित्र :-2 इस
तरह की व्यवस्था को गर्तदंती (thecodont) कहते हैं। मनुष्य सहित अधिकांश
स्तनधरियों के जीवन काल में दो तरह के दांत आते हैं- अस्थायी दांत-समूह
अथवा दूध् के दांत जो वयस्कों में स्थायी दांतों से प्रतिस्थापित हो जाते
हैं। इस तरह की दांत दंत-व्यवस्था को द्विबारदंती (Diphyodont) कहते हैं।
वयस्क मनुष्य में 32 स्थायी दांत होते हैं, जिनके चार प्रकार हैं जैसे-
कॄंतक ;I, रदनक ;C अग्र-चर्वणक ;PM और चर्वणक ;M। ऊपरी एवं निचले जबड़े के
प्रत्येक आधे भाग में दांतों की व्यवस्था I, C, PM, M में एक दंतसूत्र के
अनुसार होती है जो मनुष्य के लिए 2123/2123 है। इनैमल से बनी दांतों की
चबाने वाली कठोर सतह भोजन को चबाने में मदद करती है। जिह्वा स्वतंत्र रूप
से घूमने योग्य एक पेशीय अंग है जो फ़ेनुलम (frenulum) द्वारा मुखगुहा की
आधर से जुड़ी होती है। जिह्वा की ऊपरी सतह पर छोटे-छोटे उभार के रूप में
पिप्पल ;पैपिला होते हैं, जिनमें कुछ पर स्वाद कलिकाएं होती हैं।
मुखगुहा एक
छोटी ग्रसनी में खुलती है जो वायु एवं भोजन, दोनों का ही पथ है। उपास्थिमय
घाँटी ढक्कन, भोजन को निगलते समय श्वासनली में प्रवेश करने से रोकती है।
ग्रसिका (oesophagus) एक पतली लंबी नली है, जो गर्दन, वक्ष एवं मध्यपट से
होते हुए पश्च भाग में थैलीनुमा आमाशय में खुलती है। ग्रसिका का आमाशय में
खुलना एक पेशीय ;आमाशय-ग्रसिका अवरोधिनी द्वारा नियंत्रित होता है। आमाशय
;गुहा के ऊपरी बाएं भाग में स्थित होता है, को मुख्यत: तीन भागों में
विभाजित किया जा सकता है- जठरागम भाग जिसमें
ग्रसिका खुलती है, फडिस क्षेत्र और जठरनिर्गमी भाग जिसका छोटी आंत में निकास होता है ;चित्र द्वारा-विजय-मित्र :-3।
ग्रसिका खुलती है, फडिस क्षेत्र और जठरनिर्गमी भाग जिसका छोटी आंत में निकास होता है ;चित्र द्वारा-विजय-मित्र :-3।
छोटी आंत के
तीन भाग होते हैं- ‘J’ आकार की ग्रहणी, कुंडलित मध्यभाग अग्रक्षुद्रांत्र
और लंबी कुंडलित क्षुद्रांत्र। आमाशय का ग्रहणी में निकास जठरनिर्गम
अवरोधिनी द्वारा नियंत्रित होता है। क्षुद्रांत्र बड़ी आंत में खुलती है जो
अंधनाल, वृहदांत्र और मलाशय से बनी होती है। अंधनाल एक छोटा थैला है जिसमें
कुछ सहजीवीय सूक्ष्मजीव रहते हैं। अंधनाल से एक अंगुली जैसा प्रर्वध्,
परिशेषिका निकलता है जो एक अवशेषी अंग है। अंधनाल, बड़ी आंत में खुलती है।
चित्र द्वारा-विजय-मित्र :-3।
वृहदांत्र
तीन भागों में विभाजित होता है- आरोही, अनुप्रस्थ एवं अवरोही भाग। अवरोही
भाग मलाशय में खुलता है जो मलद्वार (anus) द्वारा बाहर खुलता है। आहार नाल
की दीवार में ग्रसिका से मलाशय तक, चार स्तर होते हैं ;चित्र
द्वारा-विजय-मित्र :-4 जैसे सिरोसा, मस्कुलेरिस, सबम्यूकोसा और म्युकोसा।
सिरोसा सबसे बाहरी परत है और एक पतली मेजोथिलियम ;अंतरंग अंगों की उपकला और
कुछ संयोजी ऊ
तकों से बनी होती है। मस्कुलेरिस प्राय: आंतरिक वर्तुल
पेशियों एवं बाईँ अनुदैर्घ्य पेशियों की बनी होती है। कुछ भागों में एक
तिर्यक पेशी स्तर होता है। सबम्यूकोसा स्तर रुधिर, लसीका व तंत्रिकाओं
युक्त मुलायम संयोजी ई
तक की बनी होती है। ग्रहणी में, कुछ ग्रंथियाँ भी
सबम्यूकोसा में पाई जाती हैं। आहार नाल की ल्यूमेन की सबसे भीतरी परत
म्यूकोसा है। यह स्तर आमाशय में अनियमित वलय एवं छोटी आंत में अंगुलीनुमा
प्रवर्ध् बनाता है जिसे अंकुर ;(villi) कहते हैं ;चित्र 5। अंकुर की सतह पर
स्थित कोशिकाओं से असंख्य सूक्ष्म प्रवर्ध् निकलते हैं जिन्हें सूक्ष्म
अंकुर कहते हैं, जिससे ब्रस-बार्डर जैसा लगता है। यह रूपांतरण सतही क्षेत्र
को अत्यधिक बढ़ा देता है।
अंकुरों में केशिकाओं का जाल फ़ैला रहता है और एक बड़ी लसीका वाहिका ;(vessel) होती है जिसे लैक्टीयल कहते हैं। म्यूकोसा की उपकला पर कलश-कोशिकाएं होती हैं, जो स्नेहन के लिए म्यूकस का स्राव करती हैं। म्यूकोसा आमाशय और आंत में स्थित अंकुरों के आधरों के बीच लीबरकुन-प्रगुहिका ; ( crypts of Lieberkuhn) भी कुछ ग्रंथियों का निर्माण करती है। सभी चारों परतें आहार नाल के विभिन्न भागों में रूपांतरण दर्शाती हैं।
1-2 पाचन ग्रंथियाँ
आहार नाल से
संबंधित पाचन ग्रंथियों में लार ग्रंथियाँ, यकॄत और अग्नाशय शामिल हैं। लार
का निर्माण तीन जोड़ी ग्रंथियों द्वारा होता है। ये हैं गाल में कर्णपूर्व,
निचले जबड़े में अधोजंभ/अवचिबुकीय तथा जिह्वा के नीचे स्थित अधेजिह्वा। इन
ग्रंथियों से लार मुखगुहा में पहुंचती है।
यकॄत (liver)
मनुष्य के शरीर की सबसे बड़ी ग्रंथि है जिसका वयस्क में भार लगभग 1-2 से
1-5 किलोग्राम होता है। यह उदर में मध्यपट के ठीक नीचे स्थित होता है और
इसकी दो पालियाँ ;(lobes) होती हैं। यकॄत पालिकाएं यकॄत की संरचनात्मक और
कार्यात्मक इकाइयां हैं जिनके अंदर यकॄत कोशिकाएं रज्जु की तरह व्यवस्थित
रहती हैं। प्रत्येक पालिका संयोजी ऊ
तक की एक पतली परत से ढकी होती है जिसे
ग्लिसंस केपसूल कहते हैं। यकॄत की कोशिकाओं से पित्त का स्राव होता है जो
यकॄत नलिका से होते हुए एक पतली पेशीय थैली- पित्ताशय में सांद्रित एवं जमा
होता है। पित्ताशय की नलिका यकॄतीय नलिका से मिलकर एक मूल पित्त वाहिनी
बनाती है ;चित्र द्वारा-विजय-मित्र :-6। पित्ताशयी नलिका एवं अग्नाशयी
नलिका, दोनों मिलकर यकॄत अग्नाशयी वाहिनी द्वारा ग्रहणी में खुलती है जो
ओडी अवरोधिनी से नियंत्रित होती हैं।
अग्नाशय U
आकार के ग्रहणी के बीच स्थित एक लंबी ग्रंथि है जो बहि: स्रावी और अंत:
स्रावी, दोनों ही ग्रंथियों की तरह कार्य करती है। बहि: स्रावी भाग से
क्षारीय अग्नाशयी स्राव निकलता है, जिसमें एंजाइम होते हैं और अंत: स्रावी
भाग से इंसुलिन और ग्लुकेगोन नामक हार्मोन का स्राव होता है।
2 भोजन का पाचन
पाचन की
प्रक्रिया यांत्रिक एवं रासायनिक विधियों द्वारा संपन्न होती है। मुखगुहा
के मुख्यत: दो प्रकार्य हैं, भोजन का चर्वण और निगलने की क्रिया। लार की
मदद से दांत और जिह्वा भोजन को अच्छी तरह चबाने एवं मिलाने का कार्य करते
हैं। लार का श्लेष्म भोजन कणों को चिपकाने एवं उन्हें बोलस में रूपांतरित
करने में मदद करता है। इसके उपरांत निगलने की क्रिया द्वारा बोलस ग्रसनी से
ग्रसिका में चला जाता है। बोलस पेशीय संकुचन के क्रमाकुंचन (peristalsis)
द्वारा ग्रसिका में आगे बढ़ता है। जठर-ग्रसिका अवरोधिनी भोजन के अमाशय में
प्रवेश को नियंत्रित करती है। लार ;मुखगुहा में विद्युत-अपघट्य
(electrolytes) (Na+, K+, Cl-, HCO3) और एंजाइम ;लार एमाइलेज या टायलिन तथा
लाइसोजाइम होते हैं। पाचन की रासायनिक प्रक्रिया मुखगुहा में
कार्बोहाइड्रेट को जल अपघटित करने वाली एंजाइम टायलिन या लार एमाइलेज की
सक्रियता से प्रारंभ होती है। लगभग 30 प्रतिशत स्टार्च इसी एंजाइम की
सक्रियता (pH 6-8) से द्विशर्करा माल्टोज में अपघटित होती है। लार में
उपस्थित लाइसोजाइम जीवाणुओं के संक्रमण को रोकता है।
लार एमाइलेज
स्टार्च————————> माल्टोज
(pH 6-8)
आमाशय की म्यूकोसा में जठर ग्रंथियाँ स्थित होती हैं। जठर ग्रंथियों में मुख्य रूप से तीन प्रकार की कोशिकाएं होती हैं, यथा-
(i) म्यूकस का स्राव करने वाली श्लेषमा ग्रीवा कोशिकाएं
(ii) पेप्टिक या मुख्य कोशिकाएं जो प्रोएंजाइम पेप्सिनोजेन का स्राव करती हैं तथा;
(iii) भित्तीय या ऑक्सिन्टिक कोशिकाएं जो हाइड्राक्लोरिक अम्ल और नैज कारक स्रावित करती हैं ;नैज कारक विटामिन B12 के अवशोषण के लिए आवश्यक है।
स्टार्च————————> माल्टोज
(pH 6-8)
आमाशय की म्यूकोसा में जठर ग्रंथियाँ स्थित होती हैं। जठर ग्रंथियों में मुख्य रूप से तीन प्रकार की कोशिकाएं होती हैं, यथा-
(i) म्यूकस का स्राव करने वाली श्लेषमा ग्रीवा कोशिकाएं
(ii) पेप्टिक या मुख्य कोशिकाएं जो प्रोएंजाइम पेप्सिनोजेन का स्राव करती हैं तथा;
(iii) भित्तीय या ऑक्सिन्टिक कोशिकाएं जो हाइड्राक्लोरिक अम्ल और नैज कारक स्रावित करती हैं ;नैज कारक विटामिन B12 के अवशोषण के लिए आवश्यक है।
अमाशय 4-5
घंटे तक भोजन का संग्रहण करता है। आमाशय की पेशीय दीवार के संकुचन द्वारा
भोजन अम्लीय जठर रस से पूरी तरह मिल जाता है जिसे काइम (chyme) कहते हैं।
प्रोएंजाइम
पेप्सिनोजेन हाइड्रोक्लोरिक अम्ल के संपर्क में आने से सक्रिय एंजाइम
पेप्सिन में परिवर्तित हो जाता है जो आमाशय का प्रोटीन-अपघटनीय एंजाइम है।
पेप्सिन प्रोटीनों को प्रोटियोज तथा पेप्टोंस ;पेप्टाइडों में बदल देता है।
जठर रस में उपस्थित श्लेष्म एवं बाइकार्बोनेट श्लेष्म उपकला स्तर का
स्नेहन और अत्यधिक सांद्रित हाइड्रोक्लोरिक अम्ल से उसका बचाव करते हैं।
हाइड्रोक्लोरिक अम्ल पेप्सिनों के लिए उचित अम्लीय माध्यम (pH 1-8) तैयार
करता है। नवजातों के जठर रस में रेनिन नामक प्रोटीन अपघटनीय एंजाइम होता है
जो दूध के प्रोटीन को पचाने में सहायक होता है। जठर ग्रंथियाँ थोड़ी मात्रा
में लाइपेज भी स्रावित करती हैं।
छोटी आंत का
पेशीय स्तर कई तरह की गतियां उत्पन करता है। इन गतियों से भोजन विभिन्न
स्रावों से अच्छी तरह मिल जाता है और पाचन की क्रिया सरल हो जाती है। यकॄत
अग्नाशयी नलिका द्वारा पित्त, अग्नाशयी रस और आंत्र-रस छोटी आंत में छोड़े
जाते हैं। अग्नाशयी रस में टि्रप्सिनोजन, काइमोटि्रप्सिनोजन,
प्रोकार्बोक्सीपेप्टिडेस, एमाइलेज और न्युक्लिएज एंजाइम निष्क्रिय रूप में
होते हैं। आंत्र म्यूकोसा द्वारा स्रावित ऐंटेरोकाइनेज द्वारा टि्रप्सिनोजन
सक्रिय टि्रप्सिन में बदला जाता है जो अग्नाशयी रस के अन्य एंजाइमों को
सक्रिय करता है।
सक्रिय करता है।
ग्रहणी में
प्रवेश करने वाले पित्त में पित्त वर्णक ;विलिरूबिन एवं विलिवख्रडनद्ध,
पित्त लवण, कोलेस्टेरॉल और पफास्पफोलिपिड होते हैं, लेकिन कोई एंजाइम नहीं
होता। पित्त वसा के इमल्सीकरण में मदद करता है और उसे बहुत छोटे मिसेल कणों
में तोड़ता है। पित्त लाइपेज एंजाइम को भी सक्रिय करता है। आंत्र श्लेषमा
उपकला में गोब्लेट कोशिकाएं होती हैं जो श्लेषमा का स्राव करती है।
म्यूकोसा के ब्रस बॉर्डर कोशिकाओं और गोब्लेट कोशिकाओं के स्राव आपस में
मिलकर आंत्र स्राव अथवा सक्कस एंटेरिकस बनाते हैं। इस रस में कई तरह के
एंजाइम होते हैं, जैसे-ग्लाइकोसिडेज डायपेप्टिडेज, एस्टरेज,
न्यूक्लियोसिडेज आदि।
म्यूकस
अग्नाशय के बाइकार्बोनेट के साथ मिलकर आंत्र म्यूकोसा की अम्ल के
दुष्प्रभाव से रक्षा करता है तथा एंजाइमों की सक्रियता के लिए आवश्यक
क्षारीय माध्यम (pH 7-8) तैयार करता है। इस प्रक्रिया में सब-म्यूकोसल
ब्रूनर ग्रंथि भी मदद करती है। आंत में पहुँचने वाले काइम में उपस्थित
प्रोटीन, प्रोटियोज और पेप्टोन ;आंशिक अपघटित प्रोटीन अग्नाशय रस के
प्रोटीन अपघटनीय एंजाइम निम्न रूप से क्रिया करते हैं:
प्रोटीन । ट्रिप्सिन/काइमोट्रिप्सिन
प्रोटियोज । ——————————-> डाईपेप्टाइड
पेप्टोन । कार्बोक्सीपेप्डेज
प्रोटियोज । ——————————-> डाईपेप्टाइड
पेप्टोन । कार्बोक्सीपेप्डेज
काइम के कार्बोहाइड्रेट अग्नाशयी एमाइलेज द्वारा डायसैकेराइड में जलापघटित होते हैं।
एमाइलेज
पालीसेकेराइड(स्टार्च)——————> डाईसेकेराइड
पालीसेकेराइड(स्टार्च)——————> डाईसेकेराइड
वसा पित्त की मदद से लाइपेजेज द्वारा क्रमश: डाई और मोनोग्लिसेराइड में टूटते हैं।
वसा——-> डाइग्लिसेराइड ——-> मोनोग्लिसेराइड
अग्नाशयी रस के न्यूक्लिएस न्यूक्लिक अम्लों को न्यूक्लियोटाइड और न्यूक्लियोसाइड में पाचित करते हैं।
न्यूक्लिक अम्ल——–> न्यूक्लियोटाइड———> न्यूक्लियोसाइड
आंत्र रस के
एंजाइम उपर्युक्त अभिक्रियाओं के अंतिम उत्पादों को पाचित कर अवशोषण योग्य
सरल रूप में बदल देते हैं। पाचन के ये अंतिम चरण आंत के म्यूकोसल उपकला
कोशिकाओं के बहुत समीप संपन्न होते हैं।
ऊपर वर्णित
जैव वृहत् अणुओं के पाचन की क्रिया आंत्र के ग्रहणी भाग में संपन्न होती
हैं। इस तरह निर्मित सरल पदार्थ छोटी आंत के अग्रक्षुद्रांत्र और
क्षुद्रांत्र भागों में अवशोषित होते हैं। अपचित तथा अनावशोषित पदार्थ बड़ी
आंत में चले जाते हैं। बड़ी आंत में कोई महत्वपूर्ण पाचन क्रिया नहीं होती
है। बड़ी आंत का कार्य है-1 कुछ जल, खनिज एवं औषधका अवशोषण ;
2 श्लेष्म का स्राव जो अपचित उत्सर्जी पदार्थ कणों को चिपकाने और स्नेहन होने के कारण उनका बाईँ निकास आसान बनाता है। अपचित और अवशोषित पदार्थों को मल कहते हैं, जो अस्थायी रूप से मल त्यागने से पहले तक मलाशय में रहता है।
2 श्लेष्म का स्राव जो अपचित उत्सर्जी पदार्थ कणों को चिपकाने और स्नेहन होने के कारण उनका बाईँ निकास आसान बनाता है। अपचित और अवशोषित पदार्थों को मल कहते हैं, जो अस्थायी रूप से मल त्यागने से पहले तक मलाशय में रहता है।
जठरांत्रिक
पथ की क्रियाएं विभिन्न अंगों के उचित समन्वय के लिए तंत्रिका और हॉर्मोन
के नियंत्रण से होती है। भोजन के भोज्य पदार्थों को देखने, उनकी गंध
और/अथवा मुखगुहा नली में उपस्थिति लार ग्रंथियों को स्राव के लिए उद्दीपित
कर सकती हैं। इसी प्रकार जठर और आंत्रिक स्राव भी तंत्रिका संकेतों से
उद्दीप्त होते हैं। आहार नाल के विभिन्न भागों की पेशियों की सक्रियता भी
स्थानीय एवं केंद्रीय तंत्रिकीय क्रियाओं द्वारा नियमित होती हैं। हार्मोनल
नियंत्रण के अंतर्गत, जठर और याँत्रिक म्यूकोसा से निकलने वाले हार्मोन
पाचक रसों के स्राव को नियंत्रित करते हैं।
3 पाचित उत्पादों का अवशोषण-
अवशोषण वह
प्रक्रिया है, जिसमें पाचन से प्राप्त उत्पाद यांत्रिक म्यूकोसा से निकलकर
रक्त या लसीका में प्रवेश करते हैं। यह निष्क्रिय, सक्रिय अथवा सुसाध्य
परिवहन क्रियाविधियों द्वारा संपादित होता है। ग्लुकोज, ऐमीनो अम्ल,
क्लोराइड आयन आदि की थोड़ी मात्रा सरल विसरण प्रक्रिया द्वारा रक्त में
पहुंच जाती हैं। इन पदार्थों का रक्त में पहुंचना सांद्रण-प्रवणता
(concentration gradient) पर निर्भर है। जबकि लैक्टोज और कुछ अन्य ऐमीना
अम्लों का परिवहन वाहक अणुओं जैसे सोडियम आयन की मदद से पूरा होता है। इस
क्रियाविधिको सुसाध्य परिवहन कहते हैं।
जल का परिवहन
परासरणी प्रवणता पर निर्भर करता है। सक्रिय परिवहन सांद्रण-प्रवणता के
विरु होता है जिसके लिए ऊ
र्जा की आवश्यकता होती है। विभिन्न पोषक तत्वों
जैसे ऐमीनो अम्ल, ग्लुकोस ;मोनोसैकेराइड और सोडियम आयन ;विद्युत-अपघट्य का
रक्त में अवशोषण इसी क्रियाविधि द्वारा होता है। वसाम्ल और ग्लिसेरॉल
अविलेय होने के कारण रक्त में अवशोषित नहीं हो पाते। सर्वप्रथम वे विलेय
सूक्ष्म बूंदों में समाविष्ट होकर आंत्रिक म्यूकोसा में चले जाते हैं
जिन्हें मिसेल (micelles) कहते हैं। ये यहाँ प्रोटीन आस्तरित सूक्ष्म वसा
गोलिका में पुन: संरचित होकर अंकुरों की लसीका वाहिनियों ;लेक्टियल में चले
जाते हैं। ये लसीका वाहिकाएं अंतत: अवशोषित पदार्थों को रक्त प्रवाह में
छोड़ देती हैं।
पदार्थों का
अवशोषण आहारनाल के विभिन्न भागों जैसे-मुख, आमाशय, छोटी आंत और बड़ी आंत में
होता है। परंतु सबसे अधिक अवशोषण छोटी आंत में होता है। अवशोषण सारांश
;अवशोषण- स्थल और पदार्थ तालिका 1 में दिया गया है। अवशोषित पदार्थ अंत में
ई
तकों में पहुंचते हैं जहाँ वे विभिन्न क्रियाओं के उपयोग में लाए जाते
हैं। इस प्रक्रिया को स्वांगीकरण (assimilation) कहते हैं।
पाचक अवशिष्ट
मलाशय में कठोर होकर संब मल वन जाता है जो तांत्रिक प्रतिवर्ती (neural
reflex) क्रिया को शुरू करता है जिससे मलत्याग की इच्छा पैदा होती है।
मलद्वार से मल का बहिक्षेपण एक ऐच्छिक क्रिया है जो एक बृहत् क्रमाकुंचन
गति से पूरी होती है।
4 पाचन तंत्र के विकार (Disorder) और अनियमितताएं
आंत्र नलिका
का शोथ जीवाणुओं और विषाणुओं के संक्रमण से होने वाला एक सामान्य विकार है।
आंत्र का संक्रमण परजीवियों, जैसे- फीता कॄमि, गोलकॄमि, सूत्रकॄमि,
हुकवर्म, पिनवर्म, आदि से भी होता है।
पीलिया (Jaundice) : इसमें यकॄत प्रभावित होता है। पीलिया में त्वचा और आंख पित्त वर्णकों के जमा होने से पीले रंग के दिखाई देते हैं।
वमन
(Vomiting) : यह आमाशय में संगृहीत पदार्थों की मुख से बाहर निकलने की
क्रिया है। यह प्रतिवर्ती क्रिया मेडुला में स्थित वमन केंद्र से नियंत्रित
होती है। उल्टी से पहले बेचैनी की अनुभूति होती है।
प्रवाहिका
(Diarrhoea) : आंत्र ;इवूमस की अपसामान्य गति की बारंबारता और मल का
अत्यधिक पतला हो जाना प्रवाहिका (Diarrhoea) कहलाता है। इसमें भोजन अवशोषण
की क्रिया घट जाती है।
कोष्ठबद्धता या कब्ज (Constipation) : कब्ज में, मलाशय में मल रुक जाता है और आंत्र की गतिशीलता अनियमित हो जाती है।
अपच
(Indigestion) : इस स्थिति में, भोजन पूरी तरह नहीं पचता है और पेट भरा-भरा
महसूस होता है। अपच एंजाइमों के स्राव में कमी, व्यग्रता, खाद्य
विषाक्तता, अधिक भोजन करने, एवं मसालेदार भोजन करने के कारण होती है।
सारांश
मानव के पाचन
तंत्र में एक आहार नाल और सहयोगी ग्रंथियाँ होती हैं। आहर नाल मुख,
मुखगुहा, ग्रसनी, ग्रसिका, आमाशय, क्षुद्रांत्र, वृहदांत्र, मलाशय और
मलद्वार से बनी होती है। सहायक पाचन ग्रंथियों में लार ग्रंथि, यकॄत
;पित्ताशय सहित और अग्नाशय हैं। मुख के अंदर दाँत भोजन को चबाते हैं, जीभ
स्वाद को पहचानती है और भोजन को लार के साथ मिलाकर इसे अच्छी तरह से चबाने
के लिए सुगम बनाती है। लार में मंड या मांड ;स्टार्च पचाने वाली पाचक
एंजाइम, लार एमिलेज होती है जो मांड को पचाकर माल्टोस ;डाइसैकेराइड में बदल
देती हैं। इसके बाद भोजन ग्रसनी से होकर बोलस के रूप में ग्रसिका में
प्रवेश करता है, जो आगे क्रमाकुंचन द्वारा आमाशय तक ले जाया जाता है। आमाशय
में मुख्यत: प्रोटीन का पाचन होता है। सरल शर्कराओं, अल्कोहल और दवाओं का
भी आमाशय में अवशोषण होता है।
काइम
क्षुद्रांत्र के ग्रहणी भाग में प्रवेश करता है जहाँ अग्नाशयी रस, पित्त और
अंत में आंत्र रस के एंजाइमों द्वारा कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन और वसा का
पाचन पूरा होता है। इसके बाद भोजन छोटी आँत के अग्र क्षुद्रांत्र ;जेजुनम
और क्षुद्रांत्र ;इलियम भाग में जाता है। पाचन के पश्चात कार्बोहाइड्रट,
ग्लुकोस जैसे- मोनोसैकेराइड में परिवर्तित हो जाते हैं। अंतत: प्रोटीन
टूटकर ऐमीनो अम्लों में तथा वसा, वसीय अम्लों और ग्लिसेराल में परिवर्तित
हो जाते हैं। आँत-उत्पादों का पाचित आँत अंकुरों के उपकला स्तर द्वारा शरीर
में अवशोषित हो जाता है। अपचित भोजन ;मल त्रिकांत्र (ileoceacal) कपाट
द्वारा वृहदांत्र की अंधनाल (caecum) में प्रवेश करता है। इलियो सीकल कपाट
मल को वापस नहीं जाने देता। अधिकांश जल बड़ी आँत में अवशोषित हो जाता है।
अपचित भोजन अर्ध ठोस होकर मलाशय और गुदा नाल में पहुंचता है और अंतत: गुदा
द्वारा बहि:क्षेपित हो जाता है।
No comments:
Post a Comment